Down Syndrome: डाउन सिंड्रोम क्या है? जाने लक्षण और कारण समेत सबकुछ
Down Syndrome: एक जेनेटिक स्थिति होती है, जिसमें व्यक्ति के अंदर एक अतिरिक्त क्रोमोजोम पाया जाता है। आमतौर पर एक बच्चा 46 क्रोमोजोम के साथ जन्म लेता है, 23 माता से और 23 पिता से और ये क्रोमोजोम जोड़े में मौजूद होते हैं। जब 21वें क्रोमोजोम पर एक अतिरिक्त क्रोमोजोम मौजूद हो, तो इसे डाउन सिंड्रोम कहते हैं। इस तरह बच्चे के पास 47 क्रोमोजोम पाए जाते हैं।
21वें क्रोमोजोम से जुड़ा हुआ होने के कारण इसे ट्राइसोमी 21 भी कहते हैं। 1000 में 1 बच्चे में डाउन सिंड्रोम होने की संभावना होती है। डाउन सिंड्रोम के 30% मामलों में मानसिक रोग होने की संभावना भी होती है। डाउन सिंड्रोम किसी को भी प्रभावित कर सकता है। डाउन सिंड्रोम के सभी व्यक्ति लगभग एक जैसे दिखते हैं।
इसके शारीरिक लक्षण इस प्रकार हैं-
चिपटी नाक और चेहरा
ऊपर की तरफ चढ़ी हुई बादाम जैसी चिपटी आंखें
छोटा मुंह जिसके कारण जीभ लंबी दिखती है
छोटा चेहरा
छोटी गर्दन
छोटे हाथ, पैर
छोटी उंगलियां
छोटा कद
डाउन सिंड्रोम के मामले में जरूरी नहीं है कि व्यक्ति किसी प्रकार के रोग से ग्रसित हो लेकिन फिर भी ऐसे लोगों में निम्न समस्याएं पाई जा सकती हैं-
हृदय संबंधी समस्याएं
आंत में तकलीफ
देखने में परेशानी
सुनने में परेशानी
थायरॉयड संबंधी दिक्कत
रक्त संबंधी समस्याएं जैसे ल्यूकीमिया
संक्रमण के प्रति संवेदनशील
याद करने में दिक्कत
कमजोर जोड़ और हड्डियां
डाउन सिंड्रोम का कारण
इसका कोई विशेष कारण स्पष्ट नहीं है। हालांकि, कुछ शोध में इसे मां की अधिक उम्र में गर्भावस्था होने से जुड़ा हुआ पाया गया है। 35 से अधिक उम्र की महिलाओं के गर्भावस्था में डाउन सिंड्रोम का खतरा बढ़ा हुआ पाया गया है।
डाउन सिंड्रोम की पहचान
डाउन सिंड्रोम का पता जन्म से पहले मां के ब्लड टेस्ट और एम्नियोसेंटेसिस नाम के टेस्ट से लगाया जा सकता है। अगर जन्म के बाद इसकी पहचान करनी है तो डाउन सिंड्रोम के बच्चों के चेहरे की एक अलग आकृति से इनकी पहचान की जा सकती है। एक अतिरिक्त क्रोमोजोम होने के कारण बच्चे का मानसिक और शारीरिक विकास सामान्य से अलग हो सकता है, जिससे ये पहचान में आ जाते हैं।
डाउन सिंड्रोम कैसे मैनेज करें
सबसे पहले हताश न हों। जबतक ये शारीरिक रूप से किसी अंग को प्रभावित न कर रहे हों, ये कोई गंभीर बीमारी नहीं है। इसे आराम से मैनेज किया जा सकता है। ऐसे बच्चों के स्कूल अलग भी होते हैं और अगर मानसिक रूप से सबकुछ सामान्य है, तो वे सामान्य स्कूल में भी दाखिला ले सकते हैं।
समय समय पर आंख, कान, हृदय जैसे अंगों का परीक्षण करवाते रहें।
अच्छा खानपान रखें।
एक सही डॉक्टर के संपर्क में लगातार रहें और नियमित जांच कराते रहें।
स्पीच थेरेपी कराएं, जिससे वे सामान्य रूप से बात कर सकें।
काउंसलिंग कराते रहें, जिससे मानसिक रोग का पता चल सके और उसका समय रहते निवारण हो सके।